नम सी आखों के साये में आज फिर तुम मुस्कुराते नज़र आये,
दबी हुई सिसकियों में महफूज़ हैं तेरे साये
उस मक़ाम पे जुदा हुए आप हमसे ,
जब ज़िन्दगी में नए मौसम का आगाज़ था ....
अब शायद मुस्कुराने के बहाने कम से, थके से होंगे ,
पर हँसना पड़ेगा , उसके लिए जो शायद गम की जुबान नहीं समझती
जिसकी किल्करीओं में बस जीने की आस है
जिसने आज तक दरक्थ को जड़ से टूटते हुए नहीं देखा ....
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