ना जाने दिवाली इस ओर क्यों आती नहीं ,
क्यों हमें भी उन खुशियों से वाकिफ क्यों कराती नहीं।
अमावास का अँधेरा चुम्बक जैसा खींच लेता है उसे?
या फिर वो भी बिना झालरों, रौशनी वाले घरों पे अब जाती नहीं?
किलकारियां तो हमारे घरों में भी हैं।
बस आज कल सिसकियाँ थोड़ी ज्यादा गूंजती हैं
पर फिर भी ए दिया बाती के त्यौहार ..
क्या आज कल उन अमीरों की गलियों के बाहर मुहं दिखाते नहीं?
क्यों हमें भी उन खुशियों से वाकिफ क्यों कराती नहीं।
अमावास का अँधेरा चुम्बक जैसा खींच लेता है उसे?
या फिर वो भी बिना झालरों, रौशनी वाले घरों पे अब जाती नहीं?
किलकारियां तो हमारे घरों में भी हैं।
बस आज कल सिसकियाँ थोड़ी ज्यादा गूंजती हैं
पर फिर भी ए दिया बाती के त्यौहार ..
क्या आज कल उन अमीरों की गलियों के बाहर मुहं दिखाते नहीं?
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