Monday, February 28, 2011

लड़ता भागता बचपन

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 माँ के पल्लू को दातों से कुतरता,उँगलियों में घुमाता,शर्माता,
पैरों से मट्टी में गोले बनाता,ज़मीन को घूरता हुआ,छिपता हुआ,
वो बचपन ही था ना?चीज़ें समझना जब ज़रूरी नहीं हुआ करता था?
जब छिपने को जगह हमेशा मिला करती थी,अलमारी के पीछे,कुर्सी के नीचे.

गिलास गिरने,दूध फ़ैलाने पर एक मीठी सी झिडकी ही तो मिलती थी,
चोट खाने पर,माँ का वो झूठ मूठ का गुस्सा,उनका वो सच मुच का प्यार,
एक बार फिर,माँ,थोडा गुस्सा करो ना,पूछो, की क्या सब ठीक है?
हाँ,पल्लू हाथ से फिसल चूका है,लेकिन वो बचपन,लड़ रहा है,भाग रहा है,बड़प्पन से दूर...

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